अमर डब्बावाला ज्योतिषाचार्य / उज्जैन। भारतीय सनातन धर्म परंपरा में पितृकर्म और श्राद्ध का विशेष महत्व है। 18 में से 9 पुराणों में तथा अनेक स्मृति ग्रंथों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि पितरों की तृप्ति के बिना देवता भी अनुकूल नहीं होते। इसीलिए पितरों को देवताओं से पहले स्थान दिया गया है।
क्यों जरूरी है तीर्थ पर श्राद्ध
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार तीर्थों का अपना विशेष महत्व है। यहां देवताओं का वास माना गया है और नदियों में देवी-देवताओं की ऊर्जा विद्यमान रहती है। इन्हीं की साक्षी में किए गए जलदान, पिण्डदान, तर्पण, पार्वण श्राद्ध और अन्वष्टका श्राद्ध से पितरों की तृप्ति होती है। इसलिए यह सभी कर्म तीर्थ पर ही संपादित करने का निर्देश शास्त्रों में दिया गया है।
ऑनलाइन श्राद्ध से क्यों नहीं मिलती मुक्ति
वर्तमान समय में प्रचलित ऑनलाइन श्राद्ध पद्धति शास्त्रसम्मत नहीं मानी जाती। धर्मशास्त्रों के अनुसार ऐसी क्रियाओं से प्रत्यक्ष फल नहीं मिलता। सनातन धर्म की गति और परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए स्वयं तीर्थों पर जाकर या प्रतिनिधि के माध्यम से ही श्राद्ध करना उचित है। यदि स्वयं जाना संभव न हो तो परिवार का कोई सदस्य या प्रतिनिधि नियुक्त कर पितृकर्म संपन्न कराना चाहिए।
गया श्राद्ध के बाद भी करना होता है श्राद्ध
पद्म पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण और ब्रह्म पुराण में उल्लेख है कि श्राद्ध नित्य, नैमित्तिक और कामना परक है। शास्त्रों में श्राद्ध करने के 96 अवसर बताए गए हैं।
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गया श्राद्ध करने के बाद भी तर्पण, तीर्थ श्राद्ध और अन्य पितृकर्म आवश्यक रहते हैं।
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ब्रह्मकपाली पर पिण्डदान कुछ सिद्धांतों को निश्चित करता है, लेकिन इसके बाद भी तर्पण श्राद्ध और पितृयाग करना अनिवार्य है।
श्राद्ध से मिलने वाले फल
पितरों की संतुष्टि से वंश वृद्धि होती है, धन-धान्य की प्राप्ति होती है, उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु का आशीर्वाद मिलता है। यही कारण है कि श्राद्ध को केवल परंपरा नहीं, बल्कि सनातन धर्म का आदेश माना गया है।